भारत की राजनीति का इतिहास छात्र संगठनों और आंदोलनों से हमेशा जुड़ा रहा है। जेपी आंदोलन से लेकर मंडल आंदोलन तक, विश्वविद्यालयों और कॉलेज परिसरों ने भारतीय लोकतंत्र को दिशा देने का काम किया है। आज जब हम स्टूडेंट राजनीति और उसके दिलचस्प मोड़ों की चर्चा करते हैं, तो यह साफ दिखता है कि समय के साथ छात्र राजनीति न केवल बदली है, बल्कि उसमें नए प्रयोग और चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं।
1. छात्र राजनीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में छात्र राजनीति की शुरुआत आज़ादी के आंदोलन से मानी जाती है। जब 1920–30 के दशक में युवा छात्र ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सड़कों पर उतरे, तो वह केवल शिक्षा से जुड़ी मांगें नहीं थीं बल्कि पूरे राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का संकल्प था। स्वतंत्रता के बाद भी छात्र संगठनों ने कई बड़े सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई।
1974 में बिहार का जेपी आंदोलन, जिसने इंदिरा गांधी की सरकार को हिला दिया, उसकी जड़ें छात्र आंदोलन से ही निकली थीं।
1990 में मंडल आयोग के खिलाफ और समर्थन में जो आंदोलन हुए, उसमें विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की भूमिका निर्णायक रही।
यानी छात्र राजनीति केवल विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं रहती, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करती है।
2. दिल्ली विश्वविद्यालय (DU) और छात्र राजनीति का नया मोड़
हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) चुनावों में एक बड़ा मोड़ सामने आया। प्रशासन ने चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए ₹1 लाख का refundable बॉन्ड अनिवार्य कर दिया है।
समस्या क्या है?
विरोधी संगठनों—ABVP, NSUI और वामपंथी छात्र संगठनों—का आरोप है कि यह कदम गरीब और मध्यम वर्गीय छात्रों को चुनाव से बाहर करने के लिए उठाया गया है। वे कहते हैं कि इससे केवल अमीर पृष्ठभूमि वाले छात्र ही चुनाव लड़ पाएंगे।दिलचस्प मोड़:
इस मुद्दे पर आम तौर पर एक-दूसरे के विरोधी संगठन—ABVP, NSUI और Left—एकजुट हो गए और इस बॉन्ड प्रणाली का विरोध करने लगे। यह छात्र राजनीति में दुर्लभ स्थिति है, क्योंकि ये दल सामान्यतः एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होते हैं।
3. AAP का नया छात्र संगठन – ASAP
आम आदमी पार्टी (AAP) ने भी अब छात्र राजनीति में कदम रख दिया है। उसका छात्र संगठन ASAP (Academic Students and Progressive) पहली बार DUSU चुनावों में उतर रहा है।
ASAP का दावा है कि वह “पारदर्शी और मुद्दों पर आधारित राजनीति” करेगा। उनका फोकस शिक्षा, पारदर्शिता और छात्र हितों पर है, जबकि बाकी पुराने संगठन उन पर आरोप लगाते हैं कि वे सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा छात्र राजनीति में लाते हैं।
यह दिलचस्प है कि दिल्ली जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील विश्वविद्यालय में एक नया खिलाड़ी मैदान में उतरा है, जो समीकरण बदल सकता है।
4. छात्र राजनीति और लोकतंत्र पर सवाल
आज के समय में छात्र राजनीति कई चुनौतियों से घिरी हुई है:
पैसे का प्रभाव: महंगे चुनाव, पोस्टर-बैनर, प्रचार वाहन और अब बॉन्ड सिस्टम—ये सब यह सवाल खड़े करते हैं कि क्या साधारण पृष्ठभूमि का छात्र चुनाव लड़ सकता है?
हिंसा और गुंडागर्दी: कई बार छात्र चुनावों में हिंसा की घटनाएँ सामने आती हैं, जिससे असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
राष्ट्रीय राजनीति का प्रभाव: छात्र संगठन सीधे-सीधे बड़े दलों से जुड़े होते हैं—ABVP (BJP), NSUI (Congress), SFI (Left)। इसका मतलब यह है कि छात्र राजनीति स्वतंत्र रूप से नहीं चल पाती।
फिर भी, यह सच है कि छात्र राजनीति लोकतंत्र की नर्सरी है। यहां से निकलने वाले कई नेता राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका निभाते हैं।
5. भविष्य की दिशा: क्या बदलना चाहिए?
छात्र राजनीति के इन दिलचस्प मोड़ों के बीच यह सवाल भी जरूरी है कि आगे की राह क्या है।
पारदर्शिता जरूरी है: चुनावी खर्च और बॉन्ड जैसी बाधाओं को कम करना होगा, ताकि हर वर्ग का छात्र भाग ले सके।
मुद्दों पर फोकस: फीस वृद्धि, कैंपस सुविधाएं, प्लेसमेंट और रोजगार—ये छात्रों के असली मुद्दे हैं। इन्हें एजेंडा बनाने की जरूरत है।
हिंसा का अंत: लोकतांत्रिक बहस और विचार-विमर्श के जरिए छात्र राजनीति को और परिपक्व बनाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
आज का छात्र कल का नेता है। छात्र राजनीति में जो भी दिलचस्प मोड़ आ रहे हैं—चाहे वह DUSU चुनाव में बॉन्ड विवाद हो, ASAP का प्रवेश हो, या पुराने संगठनों का अस्थायी गठबंधन—ये सब भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की झलक दिखाते हैं।
यदि छात्र राजनीति सही दिशा में आगे बढ़े, तो यह न केवल विश्वविद्यालय परिसरों को मजबूत करेगी, बल्कि पूरे देश के लोकतांत्रिक ढांचे को भी नई ऊर्जा देगी।